कविता/ गिरती-उठती लहरो से, चलिए हाथ मिलाएं
✍️ सुधांशु पांडे “निराला”
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
गिरती-उठती लहरो से
चलिए हाथ मिलाएं।।
अनियंत्रित है खिवैया
अनियंत्रित कश्तियां है,
वेदना की कोठरी में
कैद सारी मस्तियां हैं,
मिट गया नामों निशाँ सब
शेष बस दुविधाएं।।
सिर झुकाए बैठे हो किस
हमसफ़र के प्यार में,
हौसलों के बाद आखिर
क्या बचा तलवार में,
चलना है तो चलो अभी
वरना हम भी जाएं।।
राहतों से रात काली
वेदनाआे से सवेरा,
बांधलो-कसलो कमर
भूल कर के साथ मेरा,
कितना हम संकोच करे
कितना हम शर्माएं।।
क्या मजा पाए बताओ
एक धागा जोड़कर,
रास्ता निज का गढ़ो
सिलसिले को तोड़कर,
बूंद भर जो भी बचा है
आइए वह भी पिलाएं।।