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कविता/ वो बैसाखी का दिन

दिन था वो बैशाखी का,
जब काल, धरा पर आया था
जनरल डायर का धर कर रूप,
उसने उत्पात मचाया था,

लगी सभा थी जलियांबाग में,
आए अन गिन नर – नारी थे,
देख राष्ट्रभक्तों की टोली को,
देवो ने शीश झुकाए थे,

विप्लव की आंधी थी आई,
कली – कली मुस्काई थी,
वंदेमातरम…जय हिन्द… की
ध्वनि ही चहुं दिश छाई थी,

हर मुखड़े पर गौरव आजादी का था,
उत्साह न आज समाता था,
भारत मां की मुक्ति को,
बलिदान आज बलखाता था,

देख वीरों के जन – सैलाब को,
डायर का मन तब डोला था,
क्रूरता के उस चरम खेल को
बंदूकों में भर – भर झोंका था,

चल पड़ी गोलियां दनादन दिन में,
अफरा – तफरी फैल गई,
हर ओर हाहाकार मौत का,
चीत्कार गगन तक गूंज गई,

पर बाहर से बंद ताला था,
और राह नही किसी ओर थी,
रो पड़ीं बाग की दीवारें,
ज्यों भारत माता चीख उठीं,

रक्त से सनी अमृतसर की धरती,
गुरु नानक जिसके साक्षी थे,
मानवता हुई थी शर्मसार,
कंपित हुए त्रिलोक थे,

नृत्य किया तानाशाही का तुमने,
तांडव मृत्यु का खेला था,
राष्ट्रभक्तों के जनसमूह को,
कायरता से रौंदा था,

अरे दम था तुम में तो बंदूके,
वीरों को भी कुछ तो दे देते,
दिखाते अपना शौर्य जरा,
और दो – दो हाथ तो कर लेते,

फिर देखते उस बैसाखी,
मौत तुम्हीं को आनी थी,
धर्म युद्ध तो कर लेते तुम,
मुक्त भारत मां हो जानी थी…
मुक्त भारत मां हो जानी थी…