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डायलिसिस डायरी/ संस्मरण : 11वाँ संस्करण

✍️ अनिल कुमार श्रीवास्तव 

“गुर्दा रोगियों के लिए महत्वपूर्ण : अनुभव आधारित जानकारियों का श्रंखलाबद्ध संस्मरण” – 11वाँ संस्करण

शारीरिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक चुनौतियों ने तो अपने रंग दिखा ही दिए थे कि जिस बीमा से बेहद मंहगा इलाज चल रहा था वह भी दिक्कत में आ गया था। इन दशाओं में डायलिसिस करवाना हद से बाहर था। वैसे भी एचसीवी पास्टिव की एक डायलिसिस लग्भग साढ़े तीन हजार व जांच, डायलिसिस दवाइयों व अन्य खर्चो सहित औसतन पांच हजार से अधिक की एक डायलिसिस पड़ती है। जो सप्ताह में तीन बार के हिसाब से देखें तो रूटीन दवाइयों सहित लग्भग 70 हजार महीने का खर्चा है। अब इतना ख़र्च और ऐसी स्थिति हद से बाहर था। राज्य कर्मचारी बीमा निगम के कर्मचारियों ने बताया कि आपका बीमा कार्ड बंद हो गया है और इलाज नही मिल सकता, हुआ यूं कि मैं ड्यूटी करने की स्थिति में नही था और लगातार हफ्ते में 3 डायलिसिस की वजह से ड्यूटी नही जा सकता था। ईएसआईसी के नियम के तहत जब पगार का कुछ हिस्सा बीमा में जाना बंद हो जाता है तो सामान्य तौर पर उसके छः महीनों तक कार्ड बंद नही होता लेकिन अगली बीमा क़िस्त न पहुंचने की दशा में कार्ड बंद हो जाता है। यह बीमा क़िस्त छमाही पहुंचती थी। लेकिन मेरी बीमारी उस समय गम्भीर होने की वजह से इएसबी यानी इम्प्लाई स्पेशल बेनिफिट के तहत थी लिहाजा 2 साल और अभयदान मिल गए थे। अब वह समय भी पूरा हो गया था जो पता ही नही चला था। इसलिए एक मानसिक तनाव भी था। और यह भी लगा कि आर्थिक अभाव में डायलिसिस सफर यही रुक जाएगा। मगर मेरे परीक्षक भगवान चित्रगुप्त जो ठहरे वह परीक्षाएं तो जबरदस्त लेते हैं लेकिन साथ मे ऑप्शन भी देते हैं अब आप वह ऑप्शन छांट पाएं। वह परीक्षाएं आज तक ले रहे हैं और मुझे लगता है ताउम्र लेंगे और उसका रिजल्ट वह अपने पास ही देंगे। खैर उन्होंने स्थानीय ईएसआईसी कार्यालय में एक चित्रगुप्तदूत के रूप में कार्यालय कर्मचारी भेजा जिसने बताया कि ईएसआईसी के जीओ यानी नियमावली में एक ऑर्डर ऐसा भी है यदि ड्यूटी के समय कर्मचारी किसी आसाध्य रोग से ग्रसित हो जाय, जैसे कैंसर, डायलीसिस आदि, तो जब तक बीमित व्यक्ति ठीक न हो जाय तब तक इलाज करवाना पड़ेगा हालांकि कोई अन्य लाभ नही मिलेगा। अब मेरे लिए इतनी ही जानकारी काफी थी। लेकिन सुना ईएसआईसी का प्रधान कार्यालय कानपुर में है जो बेहद दूर था। इधर एक तो आर्थिक तंगी ऊपर से डायलिसिस का खर्चा और तीसरे सरकारी लाभ के लिए दौड़ भाग। अब सरकारी लाभ के लिए औपचारिकताएं तो किसी से छिपी नही हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी ने सत्ता बेशक संभाल ली हो और ईमानदारी के प्रतीक हो लेकिन सरकारी कार्यालयों में ईमानदारी तो अब तक प्रतिष्ठापित नही हो पाई है और वह तो उनके शासन का शुरुआती दौर था। इसलिए वहां का जिक्र करना ही समय बर्बाद करना है। लेकिन मैं भी ठहरा चित्रगुप्त दास जिसने एक पैसा न देने की ठानी थी या यूं कह लीजिए अतिरिक्त पैसा था भी नही। अब विभाग के जीओ का वह पन्ना किसी तरह मेरे हांथ लग गया था। मगर निचले विभागीय कर्मचारी किसी जीओ को मानते कहां हैं वो तो आज भी उसे किनारे कर डायलिसिस की परमिशन रद्द कर देते हैं खैर बड़े विभागीय अधिकारियों से मिला और व्यथा के साथ उनकी नियमावली का वह पन्ना रखा तो उन्होंने डायलिसिस की परमिशन दे दी। यह स्वीकृति हर महीने बनवानी पड़ती है। जबकि सारे विभाग को पता है की डायलिसिस एक गम्भीर बीमारी है फिर भी हर महीने एक महीने की परमिशन के लिए आम मरीजो की लंबी लाइन में तीन चरणों मे खड़ा कर नोएडा मॉडल अस्पताल ईएसआईसी के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा डायलिसिस की स्वीकृति प्रदान करने वाले कार्यालय में जमा करवाया जाता है जहां दो दिन बाद रिजेक्ट हो जाता है फिर अधिकारियों को मिल कर मौखिक बताना पड़ता है कि मेरी कंटीन्यू डायलिसिस चल रही है 2012 से और अभी तक फिट नही हुआ हूँ लिहाजा डायलिसिस स्वीकृति दी जाय तब अनुमोदन पर दिया जाता है। जबकि जन साधारण व्यक्ति को भी पता है कि डायलिसिस एक गम्भीर रोग है और इसका इलाज नही सिवाय गुर्दा प्रत्यारोपण के और आम इंसान की सम्वेदनाएँ भी मरीजो से जुड़ी होती हैं लेकिन वो तो ठहरे सरकारी बाबू और उनके पास सिक्योरिटी गार्ड के नाम पर रिटायर्ड फौजियों की फौज वो भला किसी गम्भीर मरीज की क्यों सुने जिसके स्वर में भी बल न हो वो तो मजबूत रोगियों या मजबूत तीमारदारों की जिनकी आवाज में दम हो उनकी सुनते हैं और अधिकारियों से मिलवाते हैं। खैर अब इन परिस्थितियों से भी लड़ना सीख ही लिया था और नोएडा में महीने के अंत मे हम दोनों बच्चों को भगवान के सहारे छोड़कर एक एक कतार में आज भी जूझते दिखते हैं। क्योंकि शायद सारी लंबी कतारों से लड़कर डायलिसिस परमिशन लेना अब मेरे बस की बात नही रहा। डायलिसिस जैसे रोग का खर्चा भी बेहद तगड़ा है तो नोएडा मॉडल अस्पताल ईएसआईसी के अधिकारी, कर्मचारी अपना अहसान तो दिखाएंगे ही बेशक मोदी सरकार डिजिटल इंडिया की डींगें हांकती रहे। भई जब इन डायलिसिस मरीजो के कार्ड ही बंद हैं और उनके जीओ में अंकित है ऐसी दशा में डिजिटल कहा काम आएगा। डिजिटल तो सिर्फ निजी संस्थानों, लेनदेन में कारगर है। ईएसआईसी में इस लंबी प्रक्रिया से हर महीने दो चार होना पड़ता है। सबसे पहले गम्भीर रोगियों को जो सही से खड़े नही हो सकते उनको सुबह जल्दी से जल्दी पहुंचकर सिक्योरिटी वाले से नम्बर लेना उसमें जितनी देर हुई उतनी देर में नम्बर, कभी कभी नम्बर गायब तो लाइन लग जाती है। जहां बलिस्ट तीमारदार या बीमारों का बोलबाला रहता है। फिर कार्ड पर नम्बर डालने वाले कर्मचारी साढ़े आठ से नौ बजे के बीच आते हैं। अगर नम्बर पड़ भी गया तो डॉक्टर साहब 11 बजे जहां उनसे मिलने वालों की लंबी लाइन वो भी मजबूत लोगो के बाद गम्भीर मरीज पहुंचता है। फिर एक और बड़ी लाइन वह फार्म जमा करने के लिए जिसे दो दिन बाद परमिशन मिलती है और दो दिन बाद जवाव मिलता है आपका कार्ड बंद है। इतनी जटिल प्रक्रिया के बाद जब मरीज की डायलिसिस हो और उसे कह दिया जाय कि अधिकारियों को दिखाकर पुनः जमा करें कल मिलेगा तो जो डायलिसिस शरीर मांग रहा है उसे तो सरकारी नियमो का भान नही लिहाजा कभी कभी निजी डायलिसिस भी लेनी पड़ती है। कुलमिलाकर सरकार कोई भी आये इतने वर्षों में देखा है कि इन गम्भीर मरीजो के प्रति ईएसआईसी कभी भावनात्मक रूप से सम्वेदनशील नही हुआ और न किसी प्रकार की प्राथमिकता दी। इनमें उनको थोड़ी राहत होती है जिनकी परिस्थितियां थोड़ी सही होती है और घर परिवार रिश्तेदार सरकारी औपचारिकताएं निभाने में मदद कर देते हैं। यहां तो कतार में खड़े खड़े यह भी दिमाग मे चलता है कि आज अगर खिड़की बंद हो गयी तो कल आना पड़ेगा 60 किलोमीटर का दोहरा खर्चा और बच्चे अकेले घर पर क्या कर रहे होंगे ईश्वर बच्चों की रक्षा करना। और भी तमाम बातें।
मगर खुशी इस बात की थी कि वह जीओ हमारे पास था हर महीने लड़ना पड़ता है तो क्या हुआ यह लड़ाई और सही इस असंभव इलाज को तो करवा पा रहा हूँ। और इलाज चलने लगा। परमीशन लेकर ग्रेटर नोएडा के यथार्थ अस्पताल पहुंचा वहां देखा ………. क्रमशः …….

(…… अगले रविवार को)