डायलिसिस डायरी/ संस्मरण : नवाँ संस्करण
✍️ अनिल कुमार श्रीवास्तव
“गुर्दा रोगियों के लिए महत्वपूर्ण : अनुभव आधारित जानकारियों का श्रंखलाबद्ध संस्मरण” : नवाँ संस्करण
अब भगवान श्री चित्रगुप्त की आराधना करने लगा और कलम उठा चुका था उनके आशीर्वाद से तबियत भी थोड़ी स्थिर सी होने लगी थी औऱ हर जगह अलग अलग किरदार निभाने लगा, बहुत ही वास्तविक नजदीकी, निकट सम्बन्धियो व जुड़े मेडिकल कर्मियों को छोड़कर आभासी दुनिया के किसी क्षेत्र व व्यवसायिक क्षेत्र को आभास भी नही होने दे रहा था या होने देना चाहता था कि मैं इतनी गम्भीर बीमारी के साथ सक्रिय हूं क्योंकि इस दिखावे की दुनिया मे लोग दिखावे की संवेदना या भावना दिखाते हैं लेकिन वास्तविक रूप से कुछ अपना स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास करते भी हैं। खैर ईश्वर की कृपा से अक्षरा कलेक्शन जो बिटिया के नाम से रखा था पुनः स्टार्ट किया और फिर फलीभूत हुआ, इस बार प्रमुखता साड़ी को दी थी और अपने स्थानीय जानने वालों का भरोसा नही रखा। यह तरीका ज्यादा कारगर निकला क्योंकि जानने वाला अपनो से न खरीदकर प्रतिस्पर्धियों की बड़ाई करता मिलता है शायद उसकी भावना रहती होगी कि पनप न जाय। लेकिन मृदुभाषा, कुशल व्यवहार, उचित मूल्य और बेहतरीन गुणवत्ता चार सूत्रीय मन्त्रो के साथ अपनो से अपेक्षा का त्याग ने सफलता की राह दिखाई और दुकान चल निकली। सफलता देख आसपास के लोगो ने भी किया और स्वस्थ्य होने के कारण वह हर मामले में तो अव्वल थे लेकिन नकारात्मकता की वजह से चुनौती नही दे पा रहे थे। यही से एक सीख भी मिली कि नकारात्मक व्यक्ति कभी सफल नही हो सकता है। और कुछ कुछ दिन बाद एक एक कर या तो स्थान बदल दिये या फिर दुकान बंद कर दी। क्यो की ग्राहक किसी का सगा नही होता है और उससे की जाने वाली बुराई या नकारात्मकता सुनता तो बड़े चाव से है मगर वह क्वालिटी, रेट व्यवहार और भाषा देखकर ही आकर्षित होता है। खैर टैक्सटाइल सम्बन्धी दुकान थी और पूर्व में मैं स्वयं एक टैक्सटाइल कम्पनी में क्वालिटी विभाग में कार्य कर चुका था इसलिए यह दुकान तकनीकी हिंसाब से भी अनुकूल थी। लेकिन त्योहारों की श्रंखला में यह बम्पर चलती थी बाकी सहालक के अलावा सामान्य चलती थी। इस लेडीज वियर होने के कारण हम दोनों ही बैठते थे, मैं गल्ले पर और श्रीमती जी महिलाओ को कपड़े दिखाने गुणवत्ता बताने आदि में। इसके अलावा हमेशा ग्राहक न रहने से खाली समय मे सकारात्मक सामाजिक व धार्मिक तो कभी कभी राजनीतिक लेख भी लिखता था जिसमे मिलने वाली वाह वाह मेरे कानों में करतल ध्वनि के समान बजती हुई गजब की ऊर्जा देती थी। आभासी दुनिया मे भी कई किरदारों में था जैसे जातीय समूहों में कायस्थ की भूमिका, सार्वजनिक मंचो पर कलमकार की और समाचार समूहों में स्वतंत्र पत्रकार की भूमिका में मगर हर जगह सकारात्मकता के साथ सक्रिय था शायद इसीलिए लोगो का चहेता भी था या हो सकता है यह भी कारण हो कि बहुत से लोग इस गम्भीर बीमारी को न जानते हो तभी अपना स्नेह बनाये हुए भी थे। तमाम लोगो को तो मैं नही मेरी कलम प्यारी थी यह बहुत बाद में जाना। जब एक पोस्ट लिखी की यदि अपने या अपने संस्थान , संस्था, प्रतिष्ठान के विषय मे लिखवाना चाहते हैं तो व्यवसायिक रूप से सम्पर्क करें। यकीन मानिए लग्भग एक पखवारा लोगो की व्यक्तिगत विज्ञप्ति आनी बंद हो गयी और आभासी पटल पर मुह चुराने लगे वरना किसी की एक मदद 20 एंगल से फोटो खींच कर उसमें चार चयनित फोटो भेज कर अपनी संस्था का सराहनीय कार्य लिखवाने वाले तो कसम से … और मैं लिख भी देता था क्योंकि मुझे लगता है ये सच्चे सेवक हैं और समाज के अंतिम और मजबूर व्यक्ति को मदद देकर उठा रहे हैं मैं कुछ नही कर सकता तो लेखनी से ही लोगो को प्रेरित कर सकता हूँ। हालांकि भावनात्मक रूप से सेवी भावना तो थी लेकिन आर्थिक और शारीरिक मजबूर था इसलिए संज्ञान में आने पर किसी मजबूर की बात जरूर पटल पर उठाता था जो प्रयास आज भी रहता है।
उधर दुकान चल ही रही थी सो मजे ही मजे कुछ सामाजिक कार्यो में सशरीर शरीक होने लगा और दिल्ली एनसीआर के कुछ आभासी मित्रो से मुलाकात कर वास्तविक मित्र भी बना लिया था। आत्मीयता बढ़ी तो धीरे धीरे इस गम्भीर बीमारी की जानकारी भी लोगो को होने लगी। बिहार से संचालित चित्रांश परिवार में भगवान चित्रगुप्त की महिमा केंद्रित व सकारात्मक कायस्थवादी लेखों से मिली पूरब पहचान से हजारों की तादात वाले उस ग्रुप ने चंद स्वजातीय मित्रो को ताउम्र ह्रदय से बांध दिया। कायस्थों को एक करना तराजू में मेढ़क बिठाने जैसा होता है इसलिए ग्रुप तो तमाम बड़े देखे लेकिन टूट टूट कर नए ग्रुप्स की संख्या इतनी बढ़ गयी कि जहां पहले कायस्थ ग्रुपों से जुड़ने की चाह में उत्साही था वही ग्रुप से खुद को मुक्त करना भी शुरू कर दिया था। यह काम व्हाट्सएप पर ज्यादा था बहुत से ग्रुप रातोरात बिना किसी उद्देश्य के बन जाते थे और चंद आभासी लठैतों को किसी न किसी को टारगेट करना होता था। उस चित्रांश परिवार ने एक त्रिमूर्ति भी दी जो बाद में हैप्पी चित्रांश परिवार स्थापित कर अपने नाम को चरितार्थ करते हुए चित्रांशों को परिवार मानते हुए हैप्पी रखने के प्रयास में जुड़ी रहती और मुझे भी बार बार संबल देती रहती यहां से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर बैठकर भी मेरी चिंता थी। एक सख्शियत ऐसी भी है जिसके सराहनीय कार्यो की जितनी तारीफ की जाय कम है मगर उनका फंडा है नेकी कर दरिया में डाल और अपने सराहनीय कार्यो को अपना नाम देने से परहेज है लिहाजा न उनका कार्य न उनका नाम साझा करूंगा। लेकिन एक बार उन्होंने व्यक्तिगत मैसेज कर कहा कि अनिल जी आप जरूरतमंदों के लिए इतना लिखते हैं अपने लिए नही कभी जरूरत हो तो बेहिचक एक मैसेज, या व्हाट्सएप पर मिस कॉल कर देना, क्योंकि वो देश से बाहर रहते हैं। यह बात उनकी दिल को छू गयी और गजब का उत्साह दे गई। खैर नामो की फेहरिश्त बहुत लंबी है अगर लिखना शुरू किया तो संस्मरण ज्यादा लम्बा हो जाएगा। इस आभासी दुनिया ने तो मुझ बदनसीब बेभाई को इस बीमारी की कुशल क्षेम पूछने वाली बहने भी दी। यह कहना गलत नही होगा कि बिहार की माटी में स्नेह है, सम्मान है, संवेदना है, संस्कार है हा कुछ अपवाद वहां भी होंगे भई गया थोड़े ही हूं। इधर डायलिसिस भी विकास सर की देखरेख में बढ़िया चल रही थी। कुलमिलाकर यूं समझ लीजिए भगवान चित्रगुप्त के आशीर्वाद से शरीर भी स्थिर बना हुआ था, कलम भी गरज रही थी और दुकान भी चल रही थी। और मिली इस पुनर्पहचान ने व्यक्तित्व में थोड़ी ऊँचाई भी दी थी। अब नई जान पहचान के साथ पुराने परिचित भी आभासी दुनिया में मुझसे जुड़ने लगे थे तभी फ़ेसबुक मंच पर दूसरी आईडी व पेज बनाने पड़े थे। लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन तक नही चली ।
(..क्रमशः …… अगले रविवार को)