कविता/ हरित क्रांति
✍️ कवि सुरेश कंठ,
बथनाहा, अररिया (बिहार)
देख मुनासिब इस घड़ी में
समय बिलकुल सुहाना है
मत पूछो ठंड कितना है
किसको अभी सुनाना है
नहीं मालूम सितम कितना
समय इसी तरह चलता है
बड़ी मुश्किल है इस घड़ी में
अपने आप वो फिरता है
कुछ लोग तो यही कहेंगे
कैसे यह सब होता है
नहीं मालूम क्या प्रक्रिया है
अपने आप होता रहता है
हरित क्रांति से सब्र करो
इसे अक्षुण्ण रखना है
सही कहा है बड़े-बुजुर्ग ने
इसे अब जिबित रखना है
प्रकृति का चक्र चलता रहता
यह अपने आप सुसज्जित है
है इसके पीछे बड़ी शक्ति
वहीं से यह संचालित है
आशा है इस बात की
कितना समर्थन मिलता है
चाहता हूँ यह कायम रहे
जग जाहिर है यह मिलता है
कहते वरिष्ठ कवि “ सुरेश कंठ “
इसी से पर्यावरण रक्षित है
नहीं कोई अव वहाना चलेगा
कारण पहले से यह संचित है ।