कविता/ यही कर्म है !

सच पूछती हूँ माँ , सच सच बताना
क्या मैं अब तुझे, पराई लगती हूँ
हर समय तूंँ बार बार कहती है
ससुराल में जाकर, तू नियम से रहना
ये क्या वानगी,मैं क्यों पराई लगती हूँ
बहुत कठिन से तूँ, पाली है मुझको
बच्चा में मुझे तूँ ,अपनी दूध पिलाती
आधी रोटी खा कर, भरपेट खिलाती
छाती पर सुलाकर, लोड़ी मुझे सुनाई
अपनों से कहीं ज्यादा,मुझे नींद सुलाई
अब तूँ देती, हर समय,दूँसरों की दुहाई
बड़ी अजब सी लीला है, कैसे संभाली
सारी सुविधाएंँ को उपलब्ध तूँ कराई
चौका – बर्तन कर तूँ मुझे है पढ़ाई
आज़ बड़ी हुई हूँ, तुझे सेवा करने को
कोन कही तुझे मुझे विआह करने को
विधि का ही विधान है,यही करने को
अव जा तूँ अपनी घर, वहीं पे रहना
सास – ससुर कि मन से सेवा करना
हो सके तो, माँ – बाप को याद करना
नहीं होगी इसमें कोई जग की हँसाई
यही परम्परा चली है, बर्षो से आई
अब सभी कर्ज से हुई, विमुक्त पाई
कहें ” कवि सुरेश कंठ “यही धर्म है
सभ्य समाज ने कही यही कर्म है
नहीं छूटेगी सभ्यता, समाज नर्म है
मुक्त बातावरन में समय तूंँ बिताना
लोक -लाज को जीवन भर निभाना
बिपरित घड़ी में किसी को न सताना
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