साहित्य/ होली विशेष गीत : फगुआ
✍️ सुधांशु पांडे मुक्त प्राण “निराला”
आया-आया फगुआ;
खूब उड़ाओ री गुलाल।
भींग रही चुनरी रंगो से,
प्रेम बरसता हैं अंगों से।
सतरंगी हैं आसमान,
पृथ्वी देखें होकर उतान।
मले सजनवा रंगों से;
गोरी के गोरे गाल।
ढोल मजीरा बजे बजाए,
चुन्नी में गोरी शर्माए।
और कहें रंग दो;कलियाँ,
मिटे उदासी खुश हो गलियाँ।
बैठो हो त्यागो छोड़ो;
मन में भरा मलाल।
नारंगी,लाल,हरा,पीला,
चुस्त हुआ मन ढ़ीला-ढ़ीला।
मधुमास की मीठी फुहार,
निर्जनता में सहसा गुहार।
लेकर डेरा भगी मूकता;
ईष्या हुई हलाल।
गुझिया,पूड़ी,तरकारी,
खेलै फगुआ बारी-बारी।
एक तरफ रंगों की पुड़िया,
बाँधे,गठिआए बैठी गुडियाँ।
मन में रखकर अलबेला सा;
मीठा सरल सवाल।
कीचड़ मिट्टी जो पाओ,
गोरे को पकड़ो नहलाओ।
रंग उड़ाओ गाड़ा-गाड़ा,
नंगी होकर भागे जाड़ा।
सरसो नाचे मटकाए;
अमराई है खुशहाल।
पसरी है आँगन में होली,
खेल खालकर आँख मिचौली।
खेतों में पसरा पीलापन,
साफ गगन हल्का नीलापन।
कुर्ता फट कर चार हुआ;
सतरंगी हुई रुमाल।
रचना : सुधांशु पांडे मुक्त प्राण “निराला”
प्रयागराज (उत्तरप्रदेश)