कविता/ बृक्ष तले वटोही
नीला है आकाश
चलता-फिरता राही
बीच दोपहर में
बृक्ष तले वटोही
कराके की गर्मी
धूप है बेतहाशा
धीमी सिसकती हवा
आराम की नहीं आशा
करें आखिर क्या करें
पनसाला नजदीक है
एक कटोरा फुला चना
प्यास बुझाने मिलता है
धीरे – धीरे खाइए
प्यास जरूर मिटेगा
साथ में गूर भी
मिठास भी मिलेगा
हमें नहीं मालूम है
यह कैसा सेवा है
आगे तो बढ़िये जरा
यहां भी मेवा है
पीपल का पेड़ है
छाँव वहां जरूर है
आराम जरूर मिलेगा
हवा भी भरपूर है
ये कैसा जमाना है
बूढ़ी कि मेवा है
आनंद खूब मिला है
यही तो समझना है
सब कोई कहता है
एक हाथ से कीजिए
बड़ों का कहना है
दूसरे हाथ से लिजीए
कहें ” कवि सुरेश कंठ ”
बूढ़ी की विचार देखिए
तनिक नहीं मलाल है
यही तो कमाल देखिए ।