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भारतीय न्यायिक व्यवस्था अंतर्गत वर्चुअल कोर्ट, कानूनी बिरादरी के लिए विरोधात्मक

✍️ एडवोकेट राहुल रंजन


भारतीय गणराज्य की न्यायपालिका दुनिया भर में सबसे मजबूत और प्रगतिशील न्यायिक संस्थानों में से एक के रूप में जानी और पहचानी जाती है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन और सेवा करती है इसकी न्याय व्यवस्था में वकीलों का स्थान सर्वोपरी है एवम ज्यादातर लोगों की कमाई मुकदमों की सुनवाई पर निर्भर है एक ओर कोरोना खत्म होने के आसार नहीं दिखते, ऐसे में सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ,देश के 39 हाइकोर्ट परिसरों और 3,219 निचली अदालतों में आखिर न्याय की प्रक्रिया वर्चुअल कारगर हैं?

मेरे विचार से वर्चुअल कोर्ट कोई नकारात्मक चीज नहीं है लेकिन उसके लिए न्यायपालिका को तैयार करने की जरूरत है. देश के 19 लाख वकीलों के कामकाज में रातोरात बदलाव मुमकिन नहीं है. इसकी ट्रेनिंग होनी चाहिए क्योंकि वकीलों की बड़ी तादाद निचली अदालतों में है. ये अदालतें देश भर में फैले जिलों और तहसीलों में हैं. ज्यादातर शहरों के बाजार ऐसे नहीं जहां कंप्यूटर और डिजीटल तकनीक से जुड़े दूसरे उपकरण आसानी से मिलें. इसलिए इन अदालतों में मुकदमों की पैरवी करने वाले वकीलों के लिए वर्चुअल व्यवस्था में ढलना टेढ़ी खीर साबित हो रही है. एक तो वे डिजिटल दुनिया से बहुत परिचित नहीं हैं और दूजे संसाधनों का भी अभाव है. बहुसंख्यक वकीलों की आर्थिक स्थिति रोज के मुकदमों की सुनवाई पर निर्भर करती है. इस वजह से वर्चुअल सिस्टम लिए जरूरी उपकरणों की तत्काल व्यवस्था करना भी इनके लिए दुरूह कार्य है, बिजली, इंटरनेट और फोन नेटवर्क दुरुस्त किए बगैर निचली अदालतों में तकनीक का इस्तेमाल कर पाना संभव नहीं है.”। मुकदमों की पैरवी से मिलने वाली फीस ही अधिकतर वकीलों के जीविकोपार्जन का साधन है.

हमारी सर्वोच्च संस्था बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन मनन कुमार मिश्र भी कहते हैं, ”यह एकदम से नहीं हो सकता. इसके लिए ट्रेनिंग की जरूरत है.” मिश्र के मुताबिक, देश के 90 फीसद वकील और जज तकनीक से अनभिज्ञ हैं और इसकी बारीकियां नहीं जानते हैं. हालांकि वे हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से सुनवाई और ई-फाइलिंग जैसी सेवाओं का स्वागत करते हैं लेकिन इनके सिर्फ अर्जेंट मैटर में इस्तेमाल के हिमायती हैं.इस कारण वर्चुअल सिस्टम वकीलों के लिए घोर विरोधी हैं वर्चुअल कोर्ट में बुनियादी मुश्किलें काफी आती हैं. ई-फाइलिंग हो रही है जो काफी पेचीदा प्रक्रिया है. ऐसे में अगर तत्काल सुनवाई की अर्जी खारिज होती है तो सारी मेहनत भी बर्बाद हो जाती है, जो वकील 50 साल से ज्यादा उम्र के हैं वे तो कंप्यूटर के मामले में काफी कमजोर हैं. तीस साल वाले वकील तेज हैं. जजों को भी दिक्कत हो रही है. अनेक वकीलों के पास सिस्टम ही नहीं हैं, अगर वे मोबाइल से सुनवाई में हिस्सा बनते हैं और बीच में कोई फोन आ गया, नेटवर्क भाग गया तो जिरह वहीं खत्म होने की आसंका रहती है , जिसके पास लैपटॉप और ब्राडबैंड के साथ इनके इस्तेमाल की जानकारी है, उनके लिए तो यह ठीक है. पर जो वकील जूनियर्स, मुंशियों और क्लर्कों के सहारे हैं, उनके लिए मुश्किल है ।

वकीलों और जजों के अलावा न्याय व्यवस्था का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है मुवक्किल. मुवक्किल की तसल्ली शायद फैसले से भी ज्यादा महत्वपूर्ण होती है कि वह जिरह सुने. वह जानना चाहता है कि वकील ने क्या सवाल किया, कौन-सी किताब कोर्ट में दिखाई. विरोधी वकील क्या कह रहा है और हमारे वकील ने क्या कहा. जो कि वर्चुअल कोर्ट में माहौल नहीं बन पाता. हम जीतने के मकसद से नहीं बल्कि क्लाइंट की संतुष्टि के लिए लड़ते हैं. हारने के बाद भी अगर क्लाइंट संतुष्ट है तो वकील कामयाब है. वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में अगर क्लाइंट को बैठा भी लिया जाए तो उसके लिए ये सब समझना आसान नहीं होगा. ओपन कोर्ट में क्लाइंट को जो संतुष्टि मिलती है वह वर्चुअल कोर्ट में नहीं है.”।

लाॅकडाउन में बहुत से वकीलों ने तो जैसे तैसे गुजारा किया है गाड़ी पटरी आ ही रही थी कि ओमिक्रोन ने सब चौपट कर दिया। वकीलों के साथ दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ये भी है कि कोई दुकानदार उन्हें उधारी पर राशन का सामान भी नहीं देता है। कोरोनाकाल से लगभग दुकानदारों ने वकीलों को राशन देना बंद कर दिया हैं। दुकानदार भी जानते हैं कि वकीलों को कोई वेतन तो मिलता नहीं है तो वह दो-तीन माह बाद एक मुश्त पैसा कहां से लाकर देंगे? रिश्तेदारों के अलावा उन्हें कोई कर्ज भी नहीं देता है। यहां तक कि बैंकों से भी उन्हें किसी तरह का कर्ज लेने में परेशानी होती है। वकील स्वाभिमानी होते हैं। समाज में उनका एक रुतबा होता है, इसलिए अपनी परेशानी वह कभी किसी से साझा नहीं करते हैं। हम पूरे लाॅकडाउन के दौरान घर में रहे, कानून का पालन किया। सरकार के आदेशों को माना, लेकिन सरकार ने अधिवक्ता समाज के लिए कुछ नहीं किया। हम आम जनता के हक की लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन अपने हक की ही बात नहीं कर पाते ।

कानूनी पेशे के साथ आज सबसे बड़ा मुद्दा सामाजिक और वित्तीय सुरक्षा की कमी है। जब न्यायालय बंद होते हैं या प्रतिबंधित वातावरण में कार्य करते हैं, तो न्यायाधीशों को उनका वेतन मिलता है, न्यायालय के कर्मचारियों को उनका वेतन मिलता है, लेकिन न्यायिक प्रशासन का “तथाकथित’ सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ या अपरिहार्य हिस्सा इससे वंचित हो जाता है।

अब समय आ गया हैं बीसीआई को एडवोकेट एक्ट 1961 को संशोधित कर कानूनी पेशे के साथ-साथ वकीलों को व्यवसाय करने की अनुमति प्रदान कर दी जाए । वकीलों को इस कठिन समय में अपना और अपने परिवार का प्रबंधन करना होता है, लेकिन बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा अपने नियमों के माध्यम से लगाए गए प्रतिबंध एक वकील को किसी अन्य व्यावसायिक गतिविधि में शामिल होने से रोकते हैं।

बार काउंसिल द्वारा दिए गए इन प्रतिबंधों की गणना बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 47 से 52 तक की गई है, जो एडवोकेट्स एक्ट 1961 के तहत हैं, COVID19 की पहली लहर में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी मामले में भारत में वकीलों की दयनीय स्थितियों का संज्ञान लिया था। बार काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (रिट याचिका (सिविल संख्या ( 686/2020 ), मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की खंडपीठ में न्यायाधीश के रूप में बोपन्ना और वी रामसुब्रमण्यन ने कहा कि “महामारी नागरिकों के जीवन पर एक व्यापक प्रभाव दिया है और, विशेष रूप से, कानूनी बिरादरी को, हम इस तथ्य से अवगत हैं कि अधिवक्ता उन नियमों से बंधे हैं जो उनकी आय को केवल पेशे तक ही सीमित रखते हैं। उन्हें किसी अन्य माध्यम से आजीविका कमाने की अनुमति नहीं है। ऐसी परिस्थिति में, अदालतों के बंद होने से कानूनी पेशे का एक बड़ा हिस्सा आय और आजीविका से वंचित हो गया है”। सुप्रीम कोर्ट ने भारत संघ, राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों, बार काउंसिल ऑफ इंडिया और सभी राज्य बार काउंसिलों को नोटिस जारी किया, लेकिन दूसरी और तीसरी लहर के बाद भी अभी तक कोई फैसला नहीं लिया गया है. अब बार काउंसिल को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए। मूल समस्या “व्यापार” या “व्यावसाय” शब्द प्रतीत होती है और इस पेशे की कुलीनता की रक्षा के लिए वकीलों को व्यवसाय करने से रोक दिया गया है। एक वकील सांसद या विधायक या अंशकालिक पत्रकार या शिक्षक हो सकता है और कानून का अभ्यास कर सकता है लेकिन वह दुकान का मालिक नहीं हो सकता है और कानून का अभ्यास नहीं कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यवसाय करना या व्यापार करना व्यवसाय को “महान” से कम कर देता है।

भारत में वकीलों की वर्तमान स्थिति पर विचार करते हुए बार काउंसिल ऑफ इंडिया को इस प्रावधान पर फिर से विचार करना चाहिए और वकीलों के लिए आय के अन्य स्रोतों को अपनाने की अनुमति दे देनी चाहिए। जिससे वर्तमान स्थिति में कानूनी विरादरी के व्यक्तियों के जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।