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विशेष/ निवृत्ति मार्ग प्रणेता – भगवान् परशुराम

✍️  ज्योतिषी डॉ कविता राम शर्मा,

     योगी नरहरि आश्रम, अछोदा पुनर्वास,

           जिला : धार (मध्य प्रदेश)

इस संसार में दो ही मार्ग हैं, एक प्रवृत्ति और दूसरा निवृत्ति, जिन्हें अपनाकर मानव देव या दानव जो चाहे बन सकता है । निवृत्ति मार्ग देवत्व की ओर जाता है तो वहीं प्रवृत्ति मार्ग संसार में जन्म-मरण के चक्र में भटकाता है । सनातन धर्म के समस्त शास्त्र मानव को प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं, आवश्यकता इस बात की है कि हम उनके मर्म को समझें । प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर जाने के लिए समय-समय पर भगवान जन्म लेते हैं,जो मानव भगवान् के जन्म को समझ जाता है,वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । इसी तरह से भगवान् विष्णु के अंशावतार भगवान् परशुराम निवृत्ति मार्ग के प्रणेता थे । श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कंध में कथा आती है कि हैहयवंश का अंत करने हेतु स्वयं भगवान् ने परशुराम के रूप में अंशावतार में ऋषि जमदग्नि और रेणुका की संतान के रूप में अक्षय तृतीया को जन्म लिया । इसलिए प्रतिवर्ष अक्षय तृतीया को भगवान् परशुराम जयंती मनाई जाती है । परशुराम जी को भगवान् का आवेशावतार भी कहा गया है और उन्होंने इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया था, यह कथा जगत प्रसिद्ध है । यहां चिंतन करने वाली यह बात है कि इतने महान माता-पिता की संतान और स्वयं अंशावतार,इस प्रकार के हिंसा जैसे घृणित कृत्य करेंगे ? कथा बिल्कुल सत्य है लेकिन तत्त्व कथा है । इसी स्कंध में एक श्लोक आया है कि —
त्रि:सप्तकृत्व: पृथिवीं कृत्वा नि:क्षत्रियांप्रभु: ।
समन्तपंचके चक्रे शोणितोदान हृदान नृप ।।
अर्थात अपने पिता जमदग्नि के वध को निमित्त बनाकर परशुरामजी ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया । उपरोक्त श्लोकानुसार क्षत्रियहीन,चक्रे आदि शब्दों के मर्म समझना आवश्यक है । यह समस्त संसार सत्,रज और तम ऐसे त्रिगुणमय है और जिन्हें संसार सागर से पार होना है उन्हें त्रिगुणातीत होना आवश्यक है । यही बात भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से भी कही है कि निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । यहां क्षत्रिय से तात्पर्य हमारे तीन गुणों से है और परशुरामजी ने अपने शरीर में विद्यमान चक्रों में शक्ति संचालित कर स्वयं को इन तीनों गुणों से हीन कर दिया व त्रिगुणातीत हो गए तथा काम आदि विकारों का नाश कर दिया । इसलिए शब्द क्षत्रियहीन आया है । यहां पर किसी जाति या वर्ग विशेष के वंश को मारकर खत्म करने जैसा अर्थ लगाने का कोई औचित्य नहीं है और जो दंभी मानव ऐसे अर्थ लगाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं, वें शास्त्रों के मर्म से कोसों दूर हैं । हमें भगवान् परशुराम चरित्र से यह सीख लेना चाहिए कि हम शरीरस्थों सप्तचक्रों को जाग्रत कर, तीनों गुणों से परे हो, आनंदस्वरूप में स्थित हो जाए, यही भगवान् परशुराम जयंती महोत्सव का मूल उद्देश्य होना चाहिए । लेकिन हम बाह्य आडंबरों में इतने लिप्त हो गए हैं कि ऐसे पवित्र सु-अवसरों लाभ न उठाते हुए, अपनी शक्ति को दिखावे में व्यर्थ खर्च कर देते हैं ।