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अतिक्रमण : सामाजिक बुराई, दबंगई या मज़बूरी (उत्तर प्रदेश)

✍️ अनिल कुमार श्रीवास्तव

अतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ तो है मर्यादा, सीमा का उलंघन लेकिन बढ़ती आबादी वाले इस युग मे जनसामान्य की आवश्यक बुराई के रूप में अंगीकार कर लिया जाय तो उत्तम है। हालांकि इस पर रोकथाम हेतु आवश्यक कदम उठाते हुए यूपी मौजूदा मुख्यमंत्री बुलडोजर बाबा के नाम से मशहूर तो हो गए, लेकिन जन जन के मन पटल पर फैल चुकी इस बीमारी के सामने बुलडोजर बाबा के प्रयास नाकाफी दिख रहे हैं।

शहरों की सड़कों, गलियों, हाट बाजारों, अन्य सार्वजनिक स्थानों से लेकर खाली पड़े प्लाटों, खेतो, खलिहानों आदि में जहां जिसे मिले वह स्थायी या अस्थायी अतिक्रमण की फिराक में आमतौर पर आप को मिल ही जायेगा। धार्मिक मामलों में तो बोलना भी गुनाह है जनाब, वहां धार्मिक भावनाएं आहत हो जाएंगी। धार्मिक अतिक्रमणों को तो देखकर कभी कभी लगता है रेल सरकार या लोक निर्माण विभाग वाले इनके साथ ज्यादती कर रहे हैं। जहां इनका धार्मिक स्थल है वही से रेल लाइन, स्टेशन या सड़क निकाल दी हो …. बाजारों में तो गुजरना भी दूभर है। अब अगर आप प्रदेश की राजधानी लखनऊ की अमीनाबाद बाजार को देखेंगे तो आपको पैर रखने की जगह नही मिलेगी, वही आप अगर अमीनाबाद से रात को गुजरते हैं तो तश्वीर साफ दिखती हैं। यहां आपको 40 फीट चौड़ी शानदार सड़क दिखेगी जो दोपहर से शाम को अदृश्य हो जाती है। अगर अमीनाबाद में 5 हजार दुकानें अधिकृत हैं तो 25 हजार अस्थायी दुकानें अवैध निकलेंगी। कमोवेश यही हाल यूपी के सभी शहरों की बाजारों का है। रिक्शा, ठेला, ठेली, टैम्पो, बस, टैक्सी इत्यादि के अवैध अतिक्रमण का हाल मत पूछिए। सवारी बिठाने को लेकर ये जहां खड़े हो गए तो साहब अंगद का पैर हैं, मजाल है कि कोई हिला दे इन्हें। आपको जल्दी है तो खड़े रहिए। अतिक्रमण वाले ने दयाभाव दिखाया तो ठीक है वरना तो आप कुछ नही कर सकते।

अतिक्रमण तो वह मीठी बुराई है जिसकी लालसा अक्सर आसपास के लोगो मे भी देखी जा सकती है। मकान बनाते समय पहले तो लोग अपनी सीमा कैसे बढ़ाई जाय की जुगत में दिखेंगे फिर मकान बनने के बाद जीना, सीढ़ी इत्यादि अतिक्रमण कर बना ही लेते हैं। बहुत मकानों, दुकानों के पायदान तो अतिक्रमण की बुनियाद पर ही टिके होते हैं।
यह जमीनी नही हवाई भी होते हैं। अक्सर आपने देखा होगा मकानों की नींव तो हद में बनी हैं लेकिन लगभग 3 फिट के छज्जे हवाई अतिक्रमण किये आगे की तरफ भागे आ रहे हैं। यह इतने जबरदस्त होते हैं कि कभी कभी आमने सामने मकान के छज्जो से एक दूसरे के घर से आवागमन भी कर सकते हैं।
नदियों के किनारे झुग्गी बस्तियों की तो पूछिये ही मत। नदियों के किनारे व शहर के खाली पड़े स्थानों पर तो ऐसा अतिक्रमण है कि शायद नदियों को भी पांव पसारना दूभर होता है। कुछ अतिक्रमण भावना की तो कुछ आस्था की बुनियाद पर टिके होते हैं। बाकी दबंगई की नोक पर।

कुल मिलाकर अतिक्रमण तो अतिक्रमण ही होता है। समाज ( सभ्य मानव जगत) का दायित्व है कि वह स्वयं अपनी सीमा में रहे और लोगो को इसके लिए प्रेरित भी करे। अतिक्रमण मुक्ति में भावनाएं, आस्था आदि आड़े नही आनी चाहिए। इस दिशा में मौजूदा सरकार की आंशिक सोंच भी स्वस्थ्य समाज की परिकल्पना साकार करने में प्रभावी है। अगर इस दिशा में तेजी से कार्य किया जाय तो बेहतर है। रही बात गरीबो या असहायों की तो उसके लिए सरकार आवासीय योजनाओं के तहत विचार करे। अतिक्रमण आम जनमानस के लिए पीड़ादायी है। अतिक्रमण मुक्ति के लिए हमें बुलडोजर का ही इंतजार नही करना होगा बल्कि हमे स्वयं जागरूक बनना होगा अपनी हद में रहना होगा ।