डायलिसिस डायरी/ संस्मरण : 13वाँ संस्करण – News4 All

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डायलिसिस डायरी/ संस्मरण : 13वाँ संस्करण

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“गुर्दा रोगियों के लिए महत्वपूर्ण : अनुभव आधारित जानकारियों का श्रंखलाबद्ध संस्मरण” – 13वाँ संस्करण

✍️ अनिल कुमार श्रीवास्तव

क्षमा चाहूंगा आप लोगो से इधर व्यक्तिगत कारणों से मुखातिब नही हो पाया। अक्सर व्यक्तिगत लिखता हूँ उस कारण का आधार भी स्वास्थ्य ही होता है। पिछला पन्ना लिखते लिखते अचानक डायलिसिस शैय्या पर ही बीपी अत्यधिक बढ़ गया था और बड़ी मुश्किल से नियंत्रित हो पाया था। सौभाग्य से उस दिन डायलिसिस के दौरान पत्नी जी साथ ही थी। हुआ यों की उस दिन सुबह ही बीपी 195/110 था और उस पर 35 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद ऐसी कड़ाके की ठंड में सुबह 7 बजे से डायलिसिस लेना था। इस विचार से उन्होंने अकेले नही जाने दिया। इसके अलावा पिछले पन्ने में आपको बताया ही था कि महीने के आखिरी में ईएसआईसी की सरकारी औपचारिकताओं की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है वो भी ऐसी निर्मम प्रक्रिया जो किसी भी गम्भीर मरीज के लिए काफी तकलीफदेह होती है। इसलिए इस समय मजबूरन पत्नी जी को 2 दिन आना ही पड़ता है। इत्तेफाक से यह आपातकाल स्थिति इसी दौरान उतपन्न हो गयी इसलिए इस स्थिति को सौभाग्य कहा।
अब आप सोंच रहे होंगे पत्नी जी आखिर रोज क्यों नही आ पाती डायलिसिस के लिए तो आपको बता दूं यह भी एक विवशतापूर्ण चुनौती ही है उनके लिए हालांकि वह मोबाइल से सम्पर्क में रहती हैं। उनकी दिनचर्या देखूं तो लगेगा वाकई अद्भुत हैं वो और फिर इस परदेश में 500 किलोमीटर दूर छोटे बच्चों की भी देखभाल। कमरे के किराए से लेकर तमाम गृहस्थी की मूलभूत जिम्मेदारियां, स्वास्थ्य की जिम्मेदारी, और सबसे बड़ा तो मकान मालिक जिसे समय पर किराया चाहिए, बिजली बिल का तो पूछिये ही मत। यानी सम्वेदनाओं को दरकिनार कर पूरी तरह से व्यवसायिक। अब इन परिस्थितियों में बच्चों के ट्यूशन पर प्रयास चल रहा है। आजकल हर इंसान की अपनी जरूरतें हैं और वह परेशान हैं लेकिन दुख तब होता है जब इंसानी संवेदनाएं मरती दिखती हैं। अगर बीमारी की वजह से ट्यूशन में गैरहाजिरी हो जाय, ट्यूशन में दिन के हिंसाब से हिंसाब करना इस बात को साफ करता है। हालांकि व्यवसायिक तौर पर ठीक हो सकता है लेकिन हमारे जमाने मे ऐसा नही था इससे थोड़ा अजीब लगा तो जिक्र किया। फिलहाल मैं कोई शिक्षक तो नही हूँ और व्यवसायी भी नही इसलिए इसे संवेदना के नजरिये से देख रहा हूँ। इन परिस्थितियों में आय का कोई स्रोत न होने, बच्चे छोटे होने, घर से बेहद दूर कमरा से लेकर पानी तक किराये का होने और ऊपर से इस बड़ी बीमारी के चलते उन्हें आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए ट्यूशन हेतु समय भी चाहिए और बच्चों के लिए भी। इस मजबूरी से सुबह लग्भग 35 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। और इस समय तबियत भी लगातार नासाज रहती है। डॉक्टर्स से बात की तो पता चला कि बीपी की दवाई बढ़ गयी और तमाम सावधानियों के साथ तनावमुक्त आराम की सलाह दी गयी। अब डॉक्टर को कौन समझाए की इन परिस्थितियों में इंसान कैसे आराम कर सकता है। मगर डॉक्टर साहब तो स्वास्थ्य नजरिये से ही देखेंगे। कमोवेश लगातार तीन डायलिसिस से यही हाल रह रहा है। डायलिसिस में 210 बीपी तक तो पता रहता है फिर उसके बाद कुशल टेक्नीशियन बताते तो नही हैं कितना ऊपर गया बीपी लेकिन आंखों के आगे अंधेरा, एकदम गर्मी, चक्कर सा आ जाता है और टेक्नीशियन्स की नियंत्रण वाली दवाओं से लग्भग 15 मिनट बाद जब सेंस में आते हैं तो वही 200 के आसपास बीपी हो रहा होता है। फिर वह 170 के आसपास ही सेंटर से जाने की अनुमति देते हैं। डायलिसिस शैय्या से उतरकर ऐसा लगता है कि मानो आज नया जीवन मिल गया हो अगली जंग अगली बार लड़ी जाएगी।
खैर आज कुछ ज्यादा व्यक्तिगत हो गया आप लोग बोर हो गए होंगे। बात करते हैं पिछले पन्ने पर शरीर के पानी की। शरीर से पानी यानी बॉडी से जितना ज्यादा फ्ल्यूड निकलता है उतनी ज्यादा कमजोरी आती है ऐसा ही मेरे साथ हो रहा था अब किडनी की जिम्मेदारी कृतिम तरीके से निभाती हुई डायलिसिस डालएजर से शरीर का पानी तो निकाल देता है। लेकिन कृतिम तो कृतिम होता है नेचुरल की बराबरी थोड़ी कर सकता है। डायलिसिस से जब शरीर का फ्ल्यूड निकलता है तो शरीर की अच्छे, बुरे सारे तत्व निकल जाते हैं। अब घरों में लगे पानी साफ करने वाले ऑरो से उदहारण ले तो समझ सकते हैं। इसमे फिल्टर होता है। ऑरो का फिल्टर, डायलिसिस का डालएजर, शरीर की किडनी कमोबेश एक ही काम करते हैं साफ करने का बस नेचर/आर्टिफिशियल का अंतर है। जैसे जब पानी मे सॉलिड ज्यादा घुल जाते हैं तो टीडीएस बढ़ जाता है उसे साफ करने के लिए ऑरो का इस्तेमाल करते हैं। ऑरो से पानी के अनावश्यक तत्व, गंदगी आदि तो छन जाती है लेकिन साथ मे जरूरी पोषक तत्व, आवश्यक चीजे भी निकल जाती है जिससे पानी साफ तो हो जाता है लेकिन तत्वविहीन हो जाता है जिनको कृतिम तरीके से संतुलित करने का प्रयास तो होता है लेकिन कुदरत की नेमत तो कुदरत की नेमत है। कुछ ऐसा ही डायलिसिस प्रक्रिया में होता है। रक्त से अशुद्धियां दूर करने के लिए होने वाली डायलिसिस में डालएजर अशुद्धियां तो दूर कर देती है लेकिन शरीर मे बढ़े पानी को रिमूव करने में अच्छे व पोषक तत्व भी बाहर निकल जाते हैं। अब डायलिसिस है तो मशीन ही उसे जितना टारगेट दिया जाएगा वह पूरा करना है। उसे तत्वों की समझ थोड़ी न है। यह समझ तो हमारे चिकित्सको व टेक्नीशियन को होती है जो कृतिम तरीके से शरीर मे संतुलित करते रहते हैं। इसके लिए वो बार बार आकस्मिक प्राथमिक जांचों का भी सहारा लेते रहते हैं और मरीज की स्थिति का अवलोकन भी करते रहते हैं। डॉक्टर्स, टेक्नीशियन की सख्त हिदायद होती है कि डायलिसिस मरीज अपनी खुराक में पानी का कम से कम इस्तेमाल करे। मगर रोगी का दिल मानता ही कहां है उसे तो जो चीज मना हो मन वही चीज मांगता है। अभी पिछली डायलिसिस को एक मरीज का फ्ल्यूड 7 किलोग्राम बढ़ा हुआ था । यह देख मेरी आँखें विमस्य से फैल गईं और सोंचने लगा यह धरती आज भी वीरों से खाली नही है। मैं उस बाढ़ग्रस्त मरीज को समझाने गया तो वह मुस्कुरा रहा था। मैंने उससे कहा अद्भुत हैं भाई आप, कैसे कर लेते हैं ये कमाल? अजी कमाल ही कहेंगे सप्ताह में तीन बार डायलिसिस यानी मंगल के बाद बृहस्पतिवार को। अब आप लगा लीजिये बीच मे बुधवार पड़ा और जनाब का 7 किलो पानी बढ़ गया। इतना तो सामान्य व्यक्ति भी ऐसे जाड़े में पानी न पी पाए। वाकई अद्भुत व्यक्तित्व हैं आप, तो उन सज्जन ने कहा ……. क्रमशः ………
(अगले रविवार को)

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